लॉकडाउन का काला सच: भूखे पेट भजन नहीं होय गोपाला ले तेरी कंठी ले तेरी माला
हमरी सुन लो पुकार– मेरे दाता मेरी सरकार चिंतायाश्च चितायाश्च बिंदुमात्रं विशिष्यते । चिता दहति निर्जीवं चिंता दहति जीवनम् ॥
नई दिल्ली: श्लोक में दो बार प्रयुक्त हुये शब्द चिन्ता और चिता में केवल एक बिन्दु का अंतर है लेकिन दोनों के भावार्थ में गहरा भेद छिपा है। चिता जहाँ निर्जीव शरीर को मित्र-परिजनों के सम्मुख कुछ घंटों में जलाकर राख कर देती है, वहीं दूसरी ओर चिन्ता सजीव प्राणी को अंदर ही अंदर पल-पल जलाती है।
चिता की अग्नि ऐसी आग है, जिसमें जलने वाले की अपेक्षा परिजनों को पीड़ा होती हैं इसके ठीक उलट चिन्ता नामक अदृश्य अग्नि में जलने की वेदना की शाब्दिक अभिव्यक्ति संभव नहीं है, जिस पर बीतती है, वही समझ सकता है।
उदाहरण के रुप में, 'जाके पाँव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई' अर्थात् जब तक खुद को दर्द ना हो तब तक दूसरे के दर्द की तीव्रता का एहसास नहीं हो पाता है।
22 मार्च को जनता कर्फ़्यू लगा था, तब से आज के दिन तक सम्पूर्ण राष्ट्र ‘कोरोना वायरस’ से बचाव के लिए व्यक्तिगत, सामाजिक और राष्ट्र हित में इच्छा-अनिच्छा से घरों में बंद है।
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भगवान, अल्लाह, वाहे गुरुजी और ईसा मसीह को मानने वाले सभी सामाजिक दूरी का पालन कर रहे हैं। लोकतन्त्र में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों की भूमिका एवं कर्तव्य राजतंत्र के राजा और मंत्रियों समान हैं। देशव्यापी संकट के समय राष्ट्र के नागरिकों, प्राणियों, संपत्ति और अर्थव्यवस्था की रक्षा-सुरक्षा, भरण-पोषण का दायित्व सरकारों का है। कोरोना से बचाने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारें यथासंभव यथोचित दायित्वों का निर्वहन कर भी रही हैं। जिसमें हजारों करोड़ों का अनुदान औद्योगिक-घरानों, मंदिर ट्रस्टों, गुरुद्वारों, सामाजिक संस्थाओं, दानदाताओं, सरकारी कर्मचारियों और व्यक्तिगत तौर पर संवेदनशील लोगों द्वारा दिया गया और निरंतर जारी है।
सरकारी आँकड़ों के अनुसार भारत में लगभग 35,000 नागरिक कोरोना से संक्रमित हैं। सभी जानते हैं, अनुदान की राशि और आर्थिक सरकारी पैकेजों की घोषणा केवल कोरोना संक्रमितों के लिए नहीं की गयी। बेघर और बेरोजगार हुए श्रमिकों और मजदूरों को रहने के लिए छत और खाने के लिए कम से कम दो वक्त की रोटी मिल सके, भूख से किसी की साँसे ना थम जाए, इस मानवीय संवेदनशीलता के आधार पर गरीब-अमीर, छोटे-बड़े सभी तन-मन धन से परमार्थ में लगे हैं, लेकिन इतने के बाद भी कई अनसुलझे प्रश्न मेरे सामने मुँह बाये खड़े हैं, किससे कहूँ और क्या करूँ? सुना है, ‘कलम में बहुत ताकत है’, इस वाक्य की सत्यता को साकार करने के उद्देश्य से मैं अपने स्तंभ को पढ़ने वाले पाठकों के सामने प्रश्न उपस्थित कर रही हूँ।
शहरों और गाँवों/कस्बों में छोटे धार्मिक स्थलों पर ईश्वर, अल्लाह, वाहेगुरु और ईसा की सेवाभक्ति में लगे पंडित-पुजारी, काजी-मौलवी, सेवक और पादरियों की आजीविका प्रतिदिन भक्तों द्वारा अर्पित पैसों और खाद्य-सामग्री से चलती है।
लॉकडाउन ने भक्त और भगवान के बीच भी सामाजिक दूरी बना दी है। ऐसे में “भूखे पेट भजन नहीं होय गोपाला, ले तेरी कंठी ले तेरी माला" का उलाहना भगवान को देकर यह लोग जाएं तो जाएं कहाँ? समाज के सम्मानित और प्रणम्य वर्ग में सम्मिलित इनकी तुलना श्रमिक, मजदूर, गरीब, असहाय में किया जाना जघन्य अपराध-सा होगा, लेकिन वास्तविक स्थिति उपरोक्त वर्ग से इतर नहीं है।
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इसके साथ-साथ ऐसे लोग जिनकी मासिक आय 10-15 हजार है, स्वाभिमान से परिवार का पोषण कर रहे थे, लॉकडाउन में नौकरी चली गई, 10-15 हजार कमाने वाले के पास कहाँ से जमापूंजी होगी? यह वर्ग श्रमिक नहीं, मजदूर नहीं, सामाजिक दृष्टिकोण से बेघर और लाचार भी नहीं है, लेकिन अब कुछ खाने और खिलाने को नहीं, बीमार परिजनों के लिए दवाई भी नहीं है। आत्मसम्मान और सामाजिक प्रतिष्ठा खाने के लिए पंक्ति में खड़ा नहीं होने देती और घर आकर कोई मदद करने वाला नहीं, कहना चाहूंगी- ‘रोए बिना तो माँ भी दूध नहीं पिलाती है’।
काश ! कलम का जादू चल जाए और समाज और सरकार का ध्यान इनकी ओर भी जाए!
(लेखिका प्रो. सरोज व्यास, फेयरफील्ड प्रबंधन एवं तकनीकी संस्थान, कापसहेड़ा, नई दिल्ली में डायरेक्टर हैं। डॉ. व्यास संपादक, शिक्षिका, कवियत्री और लेखिका होने के साथ-साथ समाज सेविका के रूप में भी अपनी पहचान रखती है। ये इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के अध्ययन केंद्र की इंचार्ज भी हैं)