गोरखपुरः टेराकोटा हस्तशिल्प के नेहरू भी थे दिवाने..विदेशों तक फेमस है कलाकृति
गोरखपुर के औरंगाबाद गांव की टेराकोटा हस्तशिल्प की सुंदर कलाकृतियों की तरफ लोगों का आर्कषण न हो ऐसा हो ही नहीं सकता। ये कुम्हारों की कुछ ऐसी कृतियां है जिन्होंने एक बार देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को भी दिवाना बना दिया था। डाइनामाइट न्यूज़ की विशेष रिपोर्ट में पढ़ें इस कलाकृति की खासियत
गोरखपुरः त्यौहारी सीजन चल रहा है और धनतेरस और दिवाली पर गोरखपुर के औरंगाबाद गांव की टेराकोटा हस्तशिल्प का नाम आते ही उसकी एक से बढ़कर एक सुंदर कलाकृतियों की तरफ सबका ध्यान चला ही जाता है। इन्हें बनाने वाले कई कुम्हारों को इसी कला की वजह से सात समंदर पार जाने का मौका भी मिल चुका है। इनके हाथों का जादू अब हर किसी के सिर चढ़कर बोल रहा है।
इनमें से कुछ कुम्हारों को नेशनल और इंटरनेशनल लेवल अवॉर्ड भी मिल चुके हैं। गोरखपुर शहर से महज 15 किलोमीटर दूर औरंगाबाद अपने टेराकोटा हस्तशिल्प के लिए भारत मे ही नहीं विदेशों मे भी जाना जाता है।
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टेराकोटा के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू भी थे दिवाने
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1966 में जवाहरलाल नेहरू ने भी टेराकोटा की मूर्तियों की तारीफ की। मूर्तिकार ने बताया कि औरंगाबाद टेराकोटा का आकर्षण नेहरू को भी खींच लाया था 1966 में वह गोरखपुर आए और रिक्शा से औरंगाबाद गए, जहां टेराकोटा का काम शुरू करने वाले सुखराज से मिले और उनकी कृतियों की तारीफ की। इसके बाद सुखराज ने वहां के स्थानीय लोगों को प्रशिक्षण देना शुरू किया।
अब औरंगाबाद के घर-घर में टेराकोटा की मूर्तियां बनाई जाती हैं। वहीं मूर्तिकार ने बताया कि इस वर्ष मिट्टी का दाम बहुत बढ़ गया है 5000 रुपए ट्राली मिट्टी खरीदनी पड़ रही है। ईंधन के दाम भी आसमान छू रहे हैं, इसे विकसित करने के लिए इसका बड़ा बाजार निर्मित होना चाहिए। जिला उद्योग केंद्र कुछ प्रयास कर रहा है, लेकिन प्रयास और बड़े स्तर पर होना चाहिए।
कुम्हारों ने बताया कि 1 ट्रॉली मिट्टी में एक ट्रक सामान तैयार होते हैं और उनकी कीमत एक से डेढ़ लाख रुपए होती है।1 ट्रॉली मिट्टी को गढ़ने में 10 लोग काम करे, तो एक माह का समय लगता है। इसे पकाने में अधिकतम 3 दिन लगता है और न्यूनतम जैसे दीया पकाना है तो मात्र एक ही दिन काफी है। वहीं 60 साल के मूर्तिकार रामजीत प्रजापति का कहना है कि मैं जब 10 साल का था तभी से ये काम करता हूं।
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ये टेराकोटा हस्तशिल्प का काम हाथ का है, इसमें कोई साचे का काम नहीं है। ये सारा काम दिमाग, हाथ- आंख का काम है। कोई भी आधुनिक मशीनों का सहयोग नहीं लिया जाता है ये अपनी चाक को पहले हाथों से और अब मोटर से चला कर इससे मिट्टी को गढ़ लेते हैं। मूर्तिकारों न बताया कि हम घर में सजाने से लेकर हाथी घोड़े कछुए आदि का रूप देकर गमला लटकन देवताओं की मूर्तियां बनाते हैं जिनकी कीमत बाजारू सजावटी चीजों से सस्ती होती हैं।
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