आईआईटी खड़गपुर के पूर्व छात्र ने ‘विकसित’ की सिंधु घाटी की ये लिपि
आईआईटी (खड़गपुर) के एक पूर्व छात्र ने सिंधु घाटी सभ्यता की मुद्राओं पर अंकित चिह्नों की सटीक पहचान करने का दावा किया है। पढ़िये पूरी खबर डाइनामाइट न्यूज़ पर
नयी दिल्ली: आईआईटी (खड़गपुर) के एक पूर्व छात्र ने सिंधु घाटी सभ्यता की मुद्राओं पर अंकित चिह्नों की सटीक पहचान करने का दावा किया है और उसे एक लिपि में लयबद्ध करते हुए ‘प्रोटो ब्राह्मी’ नाम दिया है।
करीब 20 वर्ष तक दुबई में तेल एवं गैस उद्योग से संबंधित कंपनियों में शीर्ष पदों पर काम करने वाले रजत राकेश ने वर्ष 2003 से शुरू अपने शोध में यह दावा किया है। हाल ही में भारत लौटे श्री राकेश ने यहां ‘यूनीवार्ता’ से साक्षात्कार के दौरान कहा कि उस काल के मिले समस्त मोहरों और अन्य स्थानों पर उकेरित चिह्नों को सामान्य भाषा की तरह पढ़ा,लिखा और समझा जा सकता है।
श्री राकेश ने कहा,“ मोहरों के विवेचन एवं विश्लेषण से आश्चर्यजनक परिणाम आ रहे हैं जो हमारे देश, धर्म एवं संस्कृति के इतिहास पर नयी रोशनी डाल सकते हैं।” उनका दावा, यदि सत्य पाया जाता है, तो यह खोज भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास को बदल सकता है और हमें अपनी सभ्यता के विभिन्न पहलुओं पर एक अंतर्दृष्टि मिल सकती है।
उन्होंने कहा ,“ आज से एक सौ दो साल पहले रावी नदी की एक पुरानी मृत-विस्मृत धारा पर बसे एक ऊँघते गांव, हड़प्पा में पुरातात्विक खुदाई शुरू हुई थी। इस गांव के टीलों के नीचे क्या है, किसी को भी इसका जरा-सा भी अंदाज नहीं था , लेकिन खुदाई से यह सब सामने आ गया। हड़प्पा में एक प्राचीन नगरीय संरचना का स्वरूप सामने आया जो मूलभूत नागरिक और प्रशासनिक सुविधाओं से युक्त था। यह दुनिया के किसी भी अन्य समकालीन ऐतिहासिक स्थानों से इतर भव्य एवं आधुनिक था। इस घटना के बाद 1924-25 में मोहन जोदड़ो में खुदाई शुरू हुई और यह स्थल भी हड़प्पा जैसा ही निकला। तब से, पुरातत्वविदों ने पिछले 100 वर्षों में मुख्य रूप से पाकिस्तान के बलूचिस्तान, सिंध, पंजाब और भारत के पंजाब, हरियाणा,पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान और गुजरात से होते हुए लगभग 1500 स्थानों की खुदाई की है। इन खुदाइयों में मिलीं वस्तुओं का बड़े धैर्य से परीक्षण किया है।
श्री राकेश ने कहा कि इन खोजों का विश्लेषण करते हुए उन्होंने निष्कर्ष निकाला है कि ये सभी स्थल लगभग 10 लाख वर्ग किलोमीटर में फैली एक व्यापक सभ्यता से संबंधित हैं। यह नगर-आधारित सभ्यता, जो मुख्य रूप से मुख्य नदियों, उनकी सहायक नदियों, या किसी अन्य जल निकायों के तट पर विकसित हुई थी, इतने विशाल क्षेत्र में फैले होने के बावजूद मूलतः एक समान थीं। कार्बनडेटिंग ने हमें इस सभ्यता की अवधि के बारे में कुछ सुराग प्रदान किए हैं और पुरातत्वविदों ने इन्हें 3100 ईसा पूर्व से 1300 ईसा पूर्व के बीच चिह्नित किया है। उन्होंने कहा , “ इस नयी जानकारी को हमारे ज्ञात इतिहास से जोड़ना, जो कि इतिहास की किताबों में छठी शताब्दी ईसा पूर्व से शुरू होता था, एक मुश्किल कार्य था लिहाज़ा कई विवाद छिड़ गए।”
उन्होंने कहा,“ इन विवादों ने आर्य आक्रमण सिद्धांत,सिंधु घाटी द्रविड़ों की मातृभूमि,और द्रविड़ों को हराने, उनकी भूमि पर कब्जा करने वाले और उन्हें दक्षिण तक धकेलने वाले बर्बर हमलावर आर्य जैसी प्रचलित मिथकों को जन्म दिया।ऐसे सभी मिथकों और अटकलों को राजनीतिक कारणों से इस समूह या उस समूह का समर्थन प्राप्त था। उत्खनन में जो सामग्री मिली वे जितनी बेजान थीं उतनी ही गूंगी भी। फिर भी उम्मीद थी,क्योंकि इन आईवीसी साइटों में खुदाई में मिली सामग्रियों में सील और बर्तन के टुकड़ों पर कुछ उकेरित चिह्न थे। लेकिन ये सभी उम्मीदें तब टूट गईं जब हमने महसूस किया कि हमारे पास मिस्र की चित्रलिपि के मामले में उपलब्ध रोसेटास्टोन जैसी कोई द्विभाषी या त्रिभाषी कुंजी नहीं है।”
श्री राकेश ने कहा,“ विभिन्न समूहों और लॉबी द्वारा कई प्रयासों, दावों और प्रतिदावों के बावजूद, हम इस लिपि को समझने में प्रगति नहीं कर पाए। सौ साल हो गए, फिर भी आजतक कोई भी इस स्क्रिप्ट को समझ नहीं सका है।”
यह पूछने पर कि आपने कहा कि इस लिपि को समझने के संबंध में कई प्रयास और दावे किए गए हैं, लेकिन ये सभी सहकर्मी-समीक्षाओं में विफल रहे। आपके प्रयास में क्या अलग है, और आप इसके बारे में आश्वस्त क्यों हैं,उन्होंने कहा,“चूंकि हमारे पास इस लिपि के लिए रोसेटा स्टोन या चाबियां नहीं हैं, इसलिए कोई भी कुछ भी पढ़ने का दावा कर सकता है, और हमारे पास कोई ऐसा उपलब्ध मानक नमूना नहीं है जिसके साथ हम रीडिंग की तुलना कर सत्यता की जांच कर सकें। हम कार्य प्रणाली की हालांकि जांच कर सकते हैं और पता लगा सकते हैं कि क्या यह तर्क संगत एवं वैज्ञानिक है तथा प्रस्तावक की मनमानी और पूर्वाग्रहों से मुक्त है। रीडिंग की संगति और परिणाम भी हमें रीडिंग की शुद्धता के बारे में सुराग दे सकते हैं।
उन्होंने कहा , “आमतौर पर, एक स्क्रिप्ट एक नियम-आधारित लेखन प्रणाली होती है, जिसमें तय नियमों के आधार पर, कोई भी किसी शब्द या वाक्य को प्रस्तावकों के समान ही पढ़ सकता है। एक बार नियम बन जाने के बाद प्रस्ताव के हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं है, और कोई भी व्यक्ति उन नियमों का उपयोग करके पढ़ने में सक्षम होता है। मुझे पूर्ण विश्वास है क्योंकि मैंने मोहरों पर अंकित चिह्नों के पैटर्न को देखकर विशिष्ट नियम बनाए हैं, और कोई भी उन नियमों का उपयोग कर सकता है और वही पढ़ सकता है जैसा मैं पढ़ रहा हूं। मेरा शोध वैज्ञानिक है।”
इस प्रश्न पर कि वह अपने शोध के वैज्ञानिक होने का दावा क्यों करते हैं, और यह दूसरों के दावों से कैसे अलग है,श्री राकेश ने कहा,“जैसा कि आप जानते हैं, भाषा और लिपियां रातों-रात नहीं बदलतीं। वे विकसित होती हैं। हमने मिस्र की चित्रलिपि के मामले में देखा है कि कई आक्रमणों और उथल-पुथल के बावजूद, मिस्र की चित्रलिपि, हाईरेटिक, डेमोटिक और कॉप्टिक यह सारी परस्पर संबंधित लिपियां रही हैं और इनके तुलनात्मक अध्ययन द्वारा क्रमशः विकास का पता लगाया जा सकता है। गौर करने वाली बात है कि मिस्र की चित्रलिपि का उद्भव 3000 ईसा पूर्व हुआ था और कॉप्टिक लगभग तीसरी शताब्दी ईस्वी में प्रचलन में थी। (वार्ता)
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