Chipko Movement: पेड़ काटने के बजाये महिलाओं को मारो गोली, जानिये कौन थी चिपको की जननी गौरा देवी
विश्व को चिपको आंदोलन की सौगात देने वाली गौरा देवी ने हथियारबंद लकड़ी तस्करों और वन माफियाओं को घुटने टेकने पर मजबूर किया । पढ़ें डाइनामाइट न्यूज की रिपोर्ट में गौरा देवी की संघर्ष और सफलता की कहानी
नई दिल्ली: पेड़ हमारे जीवन का सार हैं। पेड़ों को बचाने का मतलब है धरती को बचाना, इंसानी वजूद को बचाना और अपनी आत्मा को बचाना। सोचिये यदि पेड़ न हों तो ये दुनिया कैसी हो। पेड़ों के बिना जीवन और दुनिया की कल्पना करने मुश्किल है। आप सोच सकते हैं कि आज हम पेड़ों पर क्यों बात कर रहे हैं, आज तो पांच जून भी नहीं, आज 26 मार्च है। 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है और इस दिन अक्सर पेड़, पर्यावरण और जलवायु की बातें होती है। ऐसे में 5 जून का 26 मार्च से क्या रिश्ता।
हम आपको बताएंगे 26 मार्च की खासियत के बारे में। पर्यावरण और पेड़ों से इस दिन के रिश्ते के बारे में। इसके साथ ही एक ऐसी महिला के बारे में भी, जो कभी स्कूल नहीं गई और जब दुनिया में जलवायु परिवर्तन पर बातें नहीं होती थी, तब उस महिला ने पर्यावरण और पेड़ों के प्रति जो अलख जगाई, जो मुहिम शुरु की, उसे आज बड़े-बड़े वैज्ञानिक, विशेषज्ञ, पर्यावरणविद और पूरी दुनिया और देश याद करता है।
कौन है गौरा देवी?
हम आज बात कर रहे हैं गौरा देवी और उनके आंदोलन चिपको के बारे में। आज से 51 साल पहले आज के दी दिन यानि 26 मार्च 1974 को चिपको आंदोलन अस्तित्व में आया और पूरी दुनिया में छा गया। हालांकि कुछ जानकरों के मुताबिक चिपको आंदोलन 1974 से पहले ही शुरू हो चुका था लेकिन एक संगठन के रूप में व्यापक तौर पर ये 1974 में सामने आया और दुनिया के सामने छा गया।
चिपको आंदोलन की सौगात
पहले हम आपको बताते हैं गौरा की गाथा यानि गौरा देवी के बारे में, जिनको चिपको आंदोलन की जननी कहा जाता है। विश्व को चिपको आंदोलन की सौगात देने वाली गौरा देवी अविभाजित उत्तर प्रदेश के हिमालयी क्षेत्र के चमोली जनपद की निवासी थीं, जो अब उत्तराखंड में है। उनका जन्म 1952 में जोशीमठ से आगे तिब्बत सीमा से सटे लाता गांव में हुआ। एक बेहद कमजोर पारिवारिक पृष्ठभूमि से आने वाली गौरा की शादी महज 12 साल की उम्र में रैणी गांव निवासी मेहरबान सिंह के साथ कर दी गई।
आज के हिसाब से उसे एक तरह का बाल विवाह कहा जा सकता है। रैणी गांव तिब्बत सीमा के पास है। शादी के बाद यही रैणी गांव गौरा की तपस्थली और चिपको आंदोलन के जन्म का गवाह बना। कहा जाता है कि शादी के १० वर्ष बाद उनके पति मेहरबान सिंह की मृत्यु हो गई थी, तब गौरा देवी की उम्र 22 साल थी और वे छोटे बच्चे की मां थीं। उनको बच्चे के लालन पालन के लिये कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा। महज 22 साल की युवावस्था में वे विधवा हो चुकी थी।
महिला मंगल दल का नेतृत्व
ये वही समय था, जब पहाड़ों में जंगलों का कटान चरम था। कुछ कटान सरकारी राजस्व और अन्य वजह हो रहे थे तो कुछ बेशकीमती लकड़ियों की तस्करी के लिये। रैणी और आसपास के गांव के जंगलों में भी कटान होने लगा। इस दौरान गौरा देवी को महिला मंगल दल का नेतृत्व करने के लिए भी चुना गया था। सामुदायिक वनों का संरक्षण भी उनके संगठन का काम था।
भूमि का मुआवजा
1974 में रैणी के जंगल भी कटने लगे। बताया जाता है कि रैणी गांव में ढाई हजार पेड़ों की नीलामी हुई। रेणी गांव के लोगों को बताया गया कि सरकार उन्हें मुआवजा देगी। उन्हें गांव से बाहर निकाल दिया गया। कुछ ग्रामीण सड़क में निकली अपनी भूमि का मुआवजा लेने चमोली गए।
महिलाओं को गोली मारने की चुनौती
लेकिन गौरा देवी और 27 अन्य महिलाओं ने इन लकड़हारों से निपटने का फैसला किया। उन्होंने पुरुष लकड़हारों को पेड़ों को काटने के बजाये उनको यानि महिलाओं को गोली मारने की चुनौती दी। ठेकेदार ने जब उनके मजदूरों को पेड़ काटने के लिए भेजा तो गौरान देवी के नेतृतव में महिलाएं पेड़ों से चिपक गईं। उन्होंने जंगल को "वनदेवता" और अपने मायके के रूप में वर्णित किया। वे पेड़ों से लिपट गई, चिपक कई। पेड़ों पर दोनों हाथों से लिपटकर पैदा होने वाली चिपकने जैसी स्थिति के कारण इस आंदोलन का नाम चिपको पड़ा।
पेड़ों से लिपटकर
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अंत में ये महिलाएं हथियारबंद लकड़हारों की गाली-गलौज और धमकियों के बावजूद भी पेड़ों से लिपटकर या चिपककर लकड़हारों के काम को रोकने में कामयाब रहीं। गांव की महिलाओं और गौरा देवी ने दिन रात पेड़ों की रखवाली की और अगले तीन या चार दिनों में अन्य गांव और ग्रामीण भी उनके समर्थन में पेड़ बचाने आ गये।
आंदोलन की खास बात
चमोली जिले के रैणी गांव से शुरू हुआ चिपको आंदोलन धीरे-धीरे पूरे उत्तराखंड में फैल गया। पहाड़ पर लोग पेड़ों को बचाने के लिए पेड़ों से लिपटने लगे। इस आंदोलन की खास बात ये रही कि इसमे महिलाओं ने भागीदारी अधिक थी। इसके बाद आंदोलन का नेतृत्व गौरा देवी के अलावा प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा, चंडीप्रसाद भट्ट जैसे लोगों ने किया।
उत्तर प्रदेश सरकार ने पेड़ों की कटाई के मुद्दे की जांच के लिए विशेषज्ञों की एक समिति गठित की और लकड़ी काटने वाली कंपनी ने रैणी से अपने लोगों को वापस बुला लिया। समिति ने कहा कि रेणी वन पारिस्थितिकीय दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र है और वहां कोई पेड़ नहीं काटा जाना चाहिए। इसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने 1150 वर्ग किलोमीटर से अधिक वन क्षेत्र में सभी पेड़ों की कटाई पर 10 साल का प्रतिबंध लगा दिया।
वनों में पेड़ों की कटाई
चिपको आंदोलन बाद में यही आंदोलन हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, बिहार और देश के अन्य हिस्सों तक फैला और सफल भी रहा। दुनिया में इस आंदोलन को बड़ी सफलता तब मिली जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने हिमालय के वनों में पेड़ों की कटाई पर 15 वर्षों तक प्रतिबंध लगा दिया था।
पर्यावरण संरक्षण बड़ा मुद्दा
चिपको आंदोलन ने ही देश में पहली बार 70 के दशक में पर्यावरण संरक्षण बड़ा मुद्दा बना। यहां सबसे खास बात ये कि 5 जून 1974 से ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहला विश्व पर्यावरण दिवस भी मनाया जाने लगा। जबकि मार्च 1974 में चिपको आंदोलन अस्तित्व में आ चुका था और इसे वैश्विक पहचान मिली थी। ऐसे में ये भी कहा जा सकता है कि 5 जून के विश्व पर्वावरण दिवस से पहले 21 मार्च को पेड़ और पर्यावरण से जुड़ा चिपको आंदोलन अस्तित्व में आ चुका था।