Manipur Violence: मणिपुर हिंसा पर हाई कोर्ट ने कहा, भीड़ आधिपत्य का संदेश देने के लिए यौन हिंसा का इस्तेमाल करती है

डीएन ब्यूरो

मणिपुर में महिलाओं के खिलाफ यौन हमले पर रोष व्यक्त करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि भीड़ दूसरे समुदाय को अपने आधिपत्य का संदेश देने के लिए यौन हिंसा का इस्तेमाल करती है और राज्य इसे रोकने के लिए बाध्य है। पढ़िये पूरी खबर डाइनामाइट न्यूज़ पर

उच्चतम न्यायालय
उच्चतम न्यायालय


नयी दिल्ली: मणिपुर में महिलाओं के खिलाफ यौन हमले पर रोष व्यक्त करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि भीड़ दूसरे समुदाय को अपने आधिपत्य का संदेश देने के लिए यौन हिंसा का इस्तेमाल करती है और राज्य इसे रोकने के लिए बाध्य है।

डाइनामाइट न्यूज़ संवाददाता के अनुसार, अदालत ने अपने द्वारा गठित सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की तीन सदस्यीय समिति से चार मई से मणिपुर में महिलाओं के खिलाफ हुई हिंसा की प्रकृति की जांच करने को भी कहा।

प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने सात अगस्त के अपने आदेश में कहा कि महिलाओं को यौन अपराधों और हिंसा का शिकार बनाना पूरी तरह से अस्वीकार्य है और यह गरिमा, व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं स्वायत्तता के संवैधानिक मूल्यों का गंभीर उल्लंघन है।

यह आदेश बृहस्पतिवार रात अपलोड किया गया।

पीठ ने कहा, 'भीड़ आमतौर पर कई कारणों से महिलाओं के खिलाफ हिंसा का सहारा लेती है, जिसमें यह तथ्य भी शामिल है कि यदि वे एक बड़े समूह के सदस्य हैं तो वे अपने अपराधों के लिए सजा से बच सकते हैं।’’

आदेश में कहा गया कि सांप्रदायिक हिंसा के समय, भीड़ उस समुदाय को अपने आधिपत्य का संदेश देने के लिए यौन हिंसा का इस्तेमाल करती है जिससे पीड़ित या बचे हुए लोग संबंधित होते हैं।

न्यायालय ने कहा, “संघर्ष के दौरान महिलाओं के खिलाफ इस तरह की भयानक हिंसा एक अत्याचार के अलावा और कुछ नहीं है। लोगों को ऐसी निंदनीय हिंसा करने से रोकना और जिन लोगों को हिंसा में निशाना बनाया जाता है, उनकी रक्षा करना राज्य का परम कर्तव्य है - उसका सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य भी।'

बहुसंख्यक मेइती समुदाय की अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मांग के विरोध में पर्वतीय जिलों में 'आदिवासी एकजुटता मार्च' के दौरान तीन मई को मणिपुर में जातीय हिंसा भड़कने के बाद से 160 से अधिक लोग मारे गए हैं और सैकड़ों लोग घायल हुए हैं।

शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि पुलिस के लिए आरोपी व्यक्ति की शीघ्र पहचान करना और उसे गिरफ्तार करना महत्वपूर्ण है क्योंकि जांच पूरी करने के लिए उनकी जरूरत पड़ सकती है।

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यह रेखांकित करते हुए कि सांप्रदायिक संघर्ष के कारण आवासीय संपत्ति और धार्मिक स्थलों को भी बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ है, शीर्ष अदालत ने कहा कि वह अपने संवैधानिक दायित्व को निभाते हुए कदम उठाने के लिए बाध्य है।

पीठ ने कहा, ‘‘जो उपाय बताए गए हैं उनके बारे में अदालत को लगता है कि वे सभी समुदायों के लिए किए जाएंगे और उन सभी लोगों के साथ न्याय किया जाएगा जो सांप्रदायिक हिंसा में (किसी भी तरह से) हताहत हुए हैं।’’

इसने कहा, “हिंसा के पीड़ितों को उपचारात्मक उपाय प्राप्त होने चाहिए चाहे और इससे फर्क नहीं पड़ता कि वे किस समुदाय के हैं। इसी तरह, हिंसा के अपराधियों को हिंसा के स्रोत की परवाह किए बिना जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।”

शीर्ष अदालत ने कहा कि गवाहों के बयानों सहित कई गंभीर आरोप हैं, जो दर्शाते हैं कि कानून लागू करने वाली मशीनरी हिंसा को नियंत्रित करने में नाकाम रही है और कुछ स्थितियों में, अपराधियों के साथ मिली हुई है।

इसने कहा, “उचित जांच के अभाव में, यह अदालत इन आरोपों पर कोई तथ्यात्मक निष्कर्ष नहीं निकालेगी। लेकिन, कम से कम, ऐसे आरोपों के लिए वस्तुनिष्ठ तथ्यान्वेषण की आवश्यकता है।’’

पीठ ने कहा, 'जो लोग सार्वजनिक कर्तव्य के उल्लंघन के लिए जिम्मेदार हैं, उन्हें समान रूप से जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए, भले ही उनकी रैंक, स्थिति या पद कुछ भी हो।'

शीर्ष अदालत ने कहा कि राज्य का प्रत्येक अधिकारी या कर्मचारी जो न केवल संवैधानिक और आधिकारिक कर्तव्यों की अवहेलना का दोषी है, बल्कि अपराधियों के साथ मिलकर खुद अपराधी बनने का भी दोषी है, उसे हर हाल में जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।

इसने कहा, 'यह न्याय का वादा ही है जिसकी मांग संविधान इस अदालत और राज्य की सभी इकाइयों से करता है।'

यह सुनिश्चित करने के लिए कि हिंसा रुके, हिंसा के अपराधियों को दंडित किया जाए और न्याय प्रणाली में समुदाय का विश्वास और भरोसा बहाल हो, शीर्ष अदालत ने उच्च न्यायालय के तीन पूर्व न्यायाधीशों की एक समिति गठित की। इस समति में जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय की पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति गीता मित्तल, बंबई उच्च न्यायालय की पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति शालिनी फणसलकर जोशी और दिल्ली उच्च न्यायालय की पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति आशा मेनन शामिल हैं।

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शीर्ष अदालत ने कहा कि तीन सदस्यीय समिति का काम सभी उपलब्ध स्रोतों से मणिपुर में चार मई से महिलाओं के खिलाफ हुई हिंसा की प्रकृति की जांच करना होगा, जिसमें जीवित बचे लोगों के साथ व्यक्तिगत बैठकें, बचे लोगों के परिवारों के सदस्य, स्थानीय/समुदाय प्रतिनिधि, राहत शिविरों के प्रभारी अधिकारी और दर्ज प्राथमिकियों के साथ-साथ मीडिया में आई खबरें शामिल हैं।

पीठ ने कहा कि समिति बलात्कार के आघात से निपटने, समयबद्ध तरीके से सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक सहायता, राहत और पुनर्वास प्रदान करने सहित पीड़ितों की जरूरतों को पूरा करने के लिए आवश्यक कदमों पर भी एक रिपोर्ट भी सौंपेगी।

यह निर्देश देते हुए कि जांच की प्रक्रिया की निगरानी शीर्ष अदालत द्वारा की जाएगी, पीठ ने महाराष्ट्र के पूर्व पुलिस महानिदेशक दत्तात्रेय पडसलगीकर को सीबीआई के पास स्थानांतरित की गई प्राथमिकियों की जांच और राज्य की जांच मशीनरी द्वारा शेष प्राथमिकियों की जांच की निगरानी करने के लिए नियुक्त किया।

शीर्ष अदालत ने कहा, ‘‘सीबीआई को स्थानांतरित की गई प्राथमिकियों से जुड़े मामलों में उचित जांच सुनिश्चित करने के उद्देश्य से केंद्रीय गृह मंत्रालय राजस्थान, मध्य प्रदेश, झारखंड, ओडिशा और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली से कम से कम पुलिस उपाधीक्षक स्तर के पांच अधिकारियों को सीबीआई के अधीन रखेगा।’’

आदेश में कहा गया, “इन पांच अधिकारियों में से कम से कम एक महिला होगी। इस प्रयोजन के लिए, उपरोक्त राज्यों के पुलिस महानिदेशक, कम से कम पुलिस उपाधीक्षक स्तर के एक अधिकारी को सीबीआई में प्रतिनियुक्ति के लिए नामित करेंगे।''

पीठ ने कहा कि प्रतिनियुक्ति पर अधिकारी सीबीआई की समग्र संरचना के तहत अपने कार्य करेंगे और आवश्यकतानुसार समय-समय पर जानकारी और रिपोर्ट जमा करेंगे।

न्यायालय ने कहा, “दत्तात्रेय पडसलगीकर से उन आरोपों की जांच करने का भी अनुरोध किया जाता है कि कुछ पुलिस अधिकारियों की मणिपुर में संघर्ष के दौरान हिंसा (यौन हिंसा सहित) को अंजाम देने वाले अपराधियों के साथ मिलीभगत थी।’’

आदेश में कहा गया, ‘‘केंद्र सरकार और राज्य सरकार इस जांच को पूरा करने के लिए आवश्यक कोई भी सहायता प्रदान करेगी। निष्कर्ष एक रिपोर्ट के रूप में इस न्यायालय को प्रस्तुत किए जाएंगे।’’










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