आपको भी अचंभे में डाल सकती है ये खबर, दुनिया ने भुला दिया सेहत के लिये लाभकारी इस पोषक तत्व को, पढ़ें पूरी रिपोर्ट

डीएन ब्यूरो

अनुसंधानकर्ता फलियों पर अब ध्यान केंद्रित कर रहे हैं जिन्हें भुला दिया गया या जिनका बहुत कम उपयोग किया गया। मेरा मानना है कि यह खाद्य सुरक्षा की दिशा में अहम कदम है। अगर अधिक से अधिक दालों का सेवन करें तो इससे संयुक्त राष्ट्र के स्थायी विकास के दूसरे लक्ष्य ‘शून्य भूख’ को हासिल करने में मदद मिल सकती है।पढ़िये पूरी खबर डाइनामाइट न्यूज़ पर

(फाइल फोटो )
(फाइल फोटो )


कैम्ब्रिज:कई लोगों को संभवत: यह बात अचंभे में डाल सकती है लेकिन हर साल 10 फरवरी को संयुक्त राष्ट्र ‘विश्व दाल दिवस’ के तौर पर मनाता है।

अनुसंधानकर्ता फलियों पर अब ध्यान केंद्रित कर रहे हैं जिन्हें भुला दिया गया या जिनका बहुत कम उपयोग किया गया। मेरा मानना है कि यह खाद्य सुरक्षा की दिशा में अहम कदम है। अगर अधिक से अधिक दालों का सेवन करें तो इससे संयुक्त राष्ट्र के स्थायी विकास के दूसरे लक्ष्य ‘शून्य भूख’ को हासिल करने में मदद मिल सकती है।

सबसे पहले स्पष्टता के लिए बता दूं कि ‘फलियों’ और ‘दालों’ का अलग-अलग अर्थ हैं। ‘फलियां’ लेग्यूमिनोसी या फेबिका परिवार के पौधे हैं जबकि ‘दालें’ लेग्यूम पौधे के सूखें हुए बीज हैं। इनमें बीन्स, दाल और चने शामिल हैं।

दुनिया से भूख मिटाने में लेग्यूम पौधे सहायक होने का एक कारण है कि इन्हें उर्वरक भूमि या नाइट्रोजन खाद की जरूरत नहीं होती है। पौधों को अहम मॉल्यूकूल जैसे प्रोटीन या डीएनए बनाने के लिए नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है। अधिकतर लेग्यूम प्रजाति के पौधें अपनी जरूरत का नाइट्रोजन वायुमंडल से लेकर कम पोषण युक्त जमीन में भी फल-फूल सकते हैं। यह प्रक्रिया पौधे और राइजोबिया नामक बैक्टीरिया के आपसी लाभप्रद (सिम्बायोटिक) संबंध पर आधारित होता है। राइजोबिया बैक्टीरिया को लेग्यूम पौधों की जड़ों में बने गांठ में आश्रय मिल जाता है और इसके बदले वे पौधे की नाइट्रोजन आवश्यक वायमुंडल से लेकर पूरी कर देते हैं।

नाइट्रोजन को समाहित कर लेने की क्षमता से दालें पोषण तत्वों के भंडार होते हैं खासतौर पर इनमें प्रोटीन और फाइबर की उच्च मात्रा होती और वसा सीमित मात्रा में होती है।

लेकिन लेग्यूम और दालों का यही एकमात्र रोचक पहलु नहीं है। विश्व दाल दिवस 2023 के उपलक्ष्य में मैं दालों की पांच खास विशेषता और कहानियों का उल्लेख करना चाहती हूं।

अफ्रीकन याम बीन : उच्च प्रोटीन बीन और सतह से नीचे पैदा होन वाला कंद (ट्यूबर) है। अफ्रीकन याम बीन (स्पेनोस्टाइलिस स्टेनोकार्पा) दो तरह का भोजना बीन्स और भूमिगत कंद मुहैया कराता है। कंद में किसी अन्य गैर लेग्यूम कंद फसलों जैसे आलू और कसावा के मुकाबले अधिक प्रोटीन की मात्रा होती है और बीन्स (फलियां) भी प्रोटीन से भरपूर होती हैं।

इनका पोषक गुण नाइजीरिया गृह युद्ध (वर्ष 1967 से 1970) के बीच साबित हुआ जब अफ्रीकन याम बीन को अमरंथस (चौराई साग का प्रकार या राजगीरा) , टेलफेरिया और कसावा के पत्तों के साथ पकाया जाता था और युद्ध प्रभावित इलाकों में कुपोषित लोगों को खिलाया जाता था।

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यह अफ्रीकी मूल का पौधा है और पूरे अफ्रीका महाद्वीप में पाया जाता हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि इसे पश्चिमी और मध्य अफ्रीकी देशों में कई बार मानव द्वारा घरेलू उपयोग (जंगली पौधे से कृषि तक)किया गया।

आज इसे वाणिज्यिक के बजाय सुरक्षा और जीवननिर्वहन के लिए अधिक उगाया जाता है, लेकिन प्रोटीन की उच्च मात्रा और सूखे में भी इसके फलने-फूलने की क्षमता आकर्षित करती है।

कॉमन बीन (बाकला/राजमा) : यह कई प्रकार और वातावरण के अनुरूप विविधता वाली फसल है। कॉमन बीन (फेसियोलस वलगरिस) के कई प्रकार दुनिया भर में मिलते हैं। उदाहरण के लिए ब्लैक बीन्स, रेड किडनी बीन्स और पिंटो बीन्स जो अलग-अलग तरह दिखते हैं लेकिन एक ही प्रजाति की हैं।

इनकी सबसे बड़ी खासियत है कि लेग्यूम प्रजाति के अन्य पौधों के मुकाबले ये राइजोबियल की कहीं अधिक प्रजातियों को आश्रय देती हैं। इससे से संभवत: कॉमन बीन्स को अपने मूल स्थान से परे भी दुनिया के विभिन्न वातावरण में फलने-फूलने का मौका मिला। यह विभिन्न वातावरण में भी नाइट्रोजन की जरूरत को पूरी कर लेते हैं जिससे यह लेग्यूम की सबसे लचीली प्रजातियों में से एक है।

मटर : अनुवांशिकी में शुरुआती समझ हासिल करने में इसकी भूमिका है। मटर (पिसम सैटिवम) दुनिया की सबसे प्राचीन फसलों में से एक है जिसकी कृषि मानव ने शुरू की। इसने अनुवांशिकी की समझ में मदद की और इसके लिए ग्रेगॉर मेंडल के मटर के पौधे पर किए गए प्रयोग को श्रेय जाता हैं

मटर की अनुवांशिकी विविधता भी फसलों की जानकारी हासिल करने का अहम स्रोत है जो जलवायु परिवर्तन की वजह से विभिन्न मौसमी परिस्थितियों में भी जीवित रहता है।

चना : सूखे के लिए बना

कई दालें सूखें के प्रति प्रतिरोधी रहती हैं और पैदावार के लिए कम पानी का इस्तेमाल करती हैं साथ ही पशु स्रोत जैसे बीफ के मुकाबले प्रोटीन के बेहतरीन स्रोत हैं।

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चना (सिसर एरिटिनम) को सूखा प्रतिरोधी होने के लिए जाना जाता है। अधिकतर चने की फसल उन इलाकों में होती हैं जहां पर कम बारिश होती है। जहां पर पानी की कमी होती है वहां पर चने की जंगली प्रजातियां प्रमुखता से उगती हैं। जंगली चने की प्रजातियां 40 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान को सह सकती हैं और यह आधुनिक सूखा रोधी चने के लिए बेहतरीन अनुवांशिकी स्रोत हैं।

हालांकि, इसके बावजूद पानी की कमी होने पर चने की फसल प्रभावित होती है। इसलिए वैज्ञानिक उन गुणों की खोज कर रहे हैं जिससे सूखे के दौरान चने की पैदावर कम हो सकती है। यह जलवायु परिवर्तन के मद्देनजर खाद्य सुरक्षा में योगदान कर सकता है।

लुपिंस : पोषक तत्वों की तलाश करते जड़ों के झुरमुट

सफेद लुपिन (लुपिंस एल्बस), पीले लुपिन (लुपिंस लुटियस), पर्ल लुपिन (लुपिंस मटाबिलिस) बिना अतिरिक्त उर्वरक की जरूरतों के पोषक तत्व प्राप्त करने के लिए विशेष जड़ों का विकास कर सकते हैं। पौधों को नाइट्रोजन ही नहीं बल्कि फॉस्फोरस की भी जरूरत होती है। आमतौर पर पौधों में उत्पादन बढ़ाने के लिए उर्वरक का छिड़काव किया जाता है। फोसफेट उर्वरक का निर्माण फॉस्फोरस की चट्टानों से किया जाता है और यह गैर नवीनीकरण स्रोत से प्राप्त होता है जो तेजी से कृषि इस्तेमाल के लिए कम हो रहा है।

सफेद, पीले और पर्ल लुपिन के जड़ों में विशेष बदलाव हुआ है जिन्हें क्लस्टर रूट कहते हैं और पोषक तत्व की कमी होने पर मृदा में मौजूद फॉस्फोरस के कणों को सोखने में सक्षम है। ये जड़े ‘बॉटलब्रश’ के आकार की होती हैं और फॉस्फोरस की कमी होने पर यह विकसित होती हैं।

खाद्य सुरक्षा

खाद्य सुरक्षा के लिए दालों पर हमे ध्यान देना चाहिए और यह 10 फरवरी तक सीमित नहीं होना चाहिए। पांच दालें जिन्हें मैंने यहां पेश किया है वे स्थायी प्रोटीन स्रोत की जरूरत को पूरा कर सकती हैं और हमारी खाद्य प्रणाली में और विविधता ला सकती हैं। ये भविष्य में भी बेहतर खाद्य सुरक्षा में योगदान दे सकती हैं।

 










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