सऊदी अरब ने ईरान के साथ किया ये समझौता, चीन बना मध्यस्थ, जानिये अमेरिका पर इसके प्रभाव

डीएन ब्यूरो

सऊदी अरब ने हाल ही में ईरान के साथ सुलह समझौता किया और इसके लिए चीन को मध्यस्थ बनाया गया। इस तथ्य से कई अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षक आश्चर्यचकित हैं। पढ़िये पूरी खबर डाइनामाइट न्यूज़ पर

फाइल फोटो
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ह्यूस्टन: सऊदी अरब ने हाल ही में ईरान के साथ सुलह समझौता किया और इसके लिए चीन को मध्यस्थ बनाया गया। इस तथ्य से कई अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षक आश्चर्यचकित हैं।

इस समझौते को आधिकारिक तौर पर संयुक्त त्रिपक्षीय बयान नाम दिया गया है। इस पर 11 मार्च को बीजिंग में हस्ताक्षर किए गए थे और इसी के साथ रियाद एवं तेहरान के बीच राजनयिक संबंधों को बहाल करने की प्रक्रिया शुरू हुई।

निम्र अल-निम्र को मौत की सजा दिए जाने के बाद जनवरी 2016 में प्रदर्शनकारियों ने ईरान में सऊदी दूतावास पर धावा बोल दिया था जिसके बाद दोनों देशों के राजनयिक संबंध टूट गए थे। निम्र अल-निम्र एक प्रमुख सऊदी शिया मौलवी थे जिन्होंने अपने शिया अल्पसंख्यक समुदाय के साथ सऊदी अरब के व्यवहार की आलोचना की थी।

सऊदी विदेश नीति के विश्लेषक के रूप में, मैंने देखा है कि ईरान और चीन के साथ इस तरह से जुड़ने का सऊदी अरब का निर्णय उसके अंतरराष्ट्रीय संबंधों के व्यापक विविधीकरण का हिस्सा है जिसमें पिछले एक दशक में बदलाव आया है।

सऊदी अरब और खाड़ी के अन्य देशों के भू-राजनीतिक रुझानों पर नजर रखने वाले पर्यवेक्षकों के लिए, चीन की मध्यस्थता वाला समझौता इस बदलाव में फिट बैठता है।

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शीत युद्ध के दौरान साम्यवाद-विरोधी खेमे का एक अहम हिस्सा होने और फारस की खाड़ी में अमेरिका नीत क्षेत्रीय सुरक्षा नेटवर्क से करीब से जुड़े रहने के बाद, सऊदी अरब अपनी विदेश नीति में अब गुटनिरपेक्ष रुख अपना रहा है।

सऊदी लोग अमेरिकी साझेदारी पर सवाल उठाते रहे हैं।

कहा जाता है कि अमेरिका और सऊदी अरब के संबंध अक्सर तेल के बदले सुरक्षा विषय पर केंद्रित रहे हैं जिसमें सउदी अरब तेल मुहैया कराता है वहीं अमेरिका सुरक्षा प्रदान करता है।

वास्तव में, इन दोनों देशों के संबंध कहीं अधिक व्यापक आयाम वाले एवं जटिल रहे हैं। 1973 में अरब तेल प्रतिबंध में सऊदी अरब की भागीदारी या 2001 में 11 सितंबर के हमले में सऊदी नागरिकों की भागीदारी जैसी घटनाओं को लेकर कई बार संबंधों में काफी तनाव भी आया है।

लेकिन 2010 के दशक में अरब जगत में बदलाव की बयार के बाद से अमेरिका-सऊदी संबंध बिगड़ गए हैं।

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खाड़ी नेताओं के बीच धारणा है कि 2011 में मिस्र की क्रांति के दौरान अमेरिका ने मिस्र के पूर्व राष्ट्रपति होस्नी मुबारक की मदद नहीं की और इससे उन्हें गहरा झटका लगा। उन्हें डर है कि अमेरिका उन्हें भी वैसे ही छोड़ सकता है जैसे उसने 30 साल पुराने साथी मुबारक को छोड़ दिया था।

यह स्थिति उस समय और जटिल हो गई जब ईरान-अमेरिका वार्ताओं में खाड़ी देशों को शामिल नहीं किया गया। शुरु में, 2013 में गुप्त द्विपक्षीय वार्ता हुई और बाद में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों के ढांचे के हिस्से के रूप में वार्ता हुई और इसे पी5 प्लस वन नाम दिया गया। इसमें सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों के अलावा जर्मनी को शामिल किया गया। यह वार्ता 2015 में ईरान परमाणु समझौते के रूप में पूरी हुई।

इसके बाद 2019 में, सऊदी तेल के बुनियादी ढांचे पर मिसाइल और ड्रोन हमले ने भी दोनों देशों के संबंधों को प्रभावित किया। इन हमलों को ईरान से जोड़ा गया लेकिन औपचारिक रूप से कभी भी ईरान को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया था।

तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की प्रतिक्रिया थी कि यह सऊदी अरब पर हमला है न कि अमेरिका पर। ट्रंप की टिप्पणी और उसके बाद की अमेरिकी निष्क्रियता से खाड़ी देशों को झटका लगा और खाड़ी नेता एक विश्वसनीय क्षेत्रीय भागीदार के रूप में अमेरिकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाने लगे।

अंत में, 2021 में काबुल से अमेरिकी सैनिकों की वापसी से अमेरिका विरोधी धारणाओं को मजबूती मिली।










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