सुप्रीम कोर्ट ने धार्मिक स्थलों से जुड़े कानून की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर दिया ये निर्देश
उच्चतम न्यायालय ने केंद्र से उन जनहित याचिकाओं पर जवाब दाखिल करने को कहा जिनमें 1991 के उस कानून के कुछ प्रावधानों की वैधता को चुनौती दी गई है जो किसी उपासना स्थल को फिर से हासिल करने या उसके उस स्वरूप में बदलाव के लिए वाद दायर करने पर रोक लगाता है जो 15 अगस्त, 1947 को विद्यमान था। पढ़ें पूरी रिपोर्ट डाइनामाइट न्यूज़ पर
नयी दिल्ली: उच्चतम न्यायालय ने केंद्र से उन जनहित याचिकाओं पर जवाब दाखिल करने को कहा जिनमें 1991 के उस कानून के कुछ प्रावधानों की वैधता को चुनौती दी गई है जो किसी उपासना स्थल को फिर से हासिल करने या उसके उस स्वरूप में बदलाव के लिए वाद दायर करने पर रोक लगाता है जो 15 अगस्त, 1947 को विद्यमान था।
डाइनामाइट न्यूज़ संवाददाता के अनुसार प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला की पीठ ने कहा कि इस मामले की सुनवाई तीन न्यायाधीशों की पीठ जुलाई में करेगी। पीठ ने कहा, ‘‘याचिकाओं को जुलाई 2023 में तीन न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष सूचीबद्ध किया जाएगा और केंद्र तब तक जवाब दाखिल कर सकता है।’’
शीर्ष अदालत ने नौ जनवरी को केंद्र से उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) कानून, 1991 के कुछ प्रावधानों के खिलाफ दायर जनहित याचिकाओं पर फरवरी के अंत तक जवाब दाखिल करने को कहा था। संक्षिप्त सुनवाई के दौरान अदालत को इस मामले के एक वकील ने बताया कि केंद्र ने उसके आदेश के बावजूद अब तक हलफनामा दाखिल नहीं किया है।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने 14 नवंबर को कहा था कि केंद्र मामले के विभिन्न पहलुओं को लेकर एक व्यापक हलफनामा दायर करेगा। उन्होंने सरकार के विभिन्न स्तरों पर विचार-विमर्श के लिए कुछ समय मांगा था।
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शीर्ष अदालत ने कानून के प्रावधानों के खिलाफ पूर्व राज्यसभा सदस्य सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा दायर याचिका सहित छह याचिकाओं को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया है।
याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय ने अनुरोध किया है कि अधिनियम की धारा 2, 3, 4 को इस आधार पर खारिज किया जाए कि वे किसी व्यक्ति या धार्मिक समूह के उपासना स्थल पर पुनः दावा करने के न्यायिक उपचार के अधिकार को छीनती हैं। उन्होंने कुछ प्रावधानों की वैधता को चुनौती दी है जो 15 अगस्त, 1947 को धार्मिक स्थलों के स्वामित्व और स्वरूप पर यथास्थिति बनाए रखने का प्रावधान करते हैं।
उन्होंने आरोप लगाया है कि 1991 का कानून ‘‘कट्टरपंथी-बर्बर आक्रमणकारियों और कानून तोड़ने वालों' द्वारा किए गए अतिक्रमण के खिलाफ उपासना स्थलों या तीर्थ स्थलों के स्वरूप को बनाए रखने के लिए 15 अगस्त, 1947 की ‘‘मनमाने ढंग से और तर्कहीन पूर्वव्यापी कट-ऑफ तिथि’’ निर्धारित करता है।
स्वामी यह चाहते हैं कि शीर्ष अदालत कुछ प्रावधानों पर फिर से विचार करे ताकि हिंदू वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा में शाही ईदगाह मस्जिद पर दावा करने के लिए सक्षम हो सकें, वहीं उपाध्याय ने दावा किया कि पूरा क़ानून असंवैधानिक है और इस पर फिर से व्याख्या करने का कोई सवाल ही नहीं उठता।
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हालांकि, जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने कहा है कि अधिनियम को राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मालिकाना हक मामले में पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ के फैसले द्वारा संदर्भित किया गया है और इसे अब खारिज नहीं किया जा सकता।
नौ सितंबर को मामले की सुनवाई करते हुए अदालत ने कहा कि 1991 के कानून के कुछ प्रावधानों की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को फैसले के लिए पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के पास भेजा जा सकता है और इसने केंद्र से जवाब दाखिल करने को कहा था।