लॉकडाउन में शिक्षकों की ऐसी अनदेखी क्यों?
दिल्ली में 5 मार्च से 31 मार्च तक सभी प्राथमिक विद्यालयों और बाद में 13 मार्च से 31 मार्च तक सभी स्कूल-कॉलेजों को बंद किए जाने के सरकारी आदेश उचित थे। यह कदम कोरोना वायरस के बढ़ते खतरे को देखते हुए सुरक्षा की दृष्टि से उठाए गए थे। शिक्षक समुदाय और शिक्षा क्षेत्र से जुड़े प्रशासनिक अधिकारी एवं कर्मचारी विद्यालय/कॉलेज जायेंगे अथवा घर पर रहेंगे इस विषय में कोई स्पष्ट निर्देश नहीं दिये गए। स्वपोषित विद्यालयों एवं कॉलेजों के कर्मचारियों के लिए सरकार ही उनका शीर्ष मैनेजमेंट ही होता है, इसलिए उनके लिए यह कहना ही उचित होगा कि “जिसकी खाय बाजरी उसकी बजाय हाजरी”।
नई दिल्ली: आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में अध्यापक का ‘सर्वगुण-सम्पन्न’ होना, उतना ही आवश्यक है, जितना ‘भारतीय परंपरागत परिवारों में पुत्रवधु’ का। विपरीत परिस्थितियों में भी कठिन से कठिन कार्य करने की कला में पारंगत, सामंजस्य स्थापित करने में निपुण, अनुशासनहीन उद्दंड विद्यार्थियों के साथ सहनशील आचरण, मृदुभाषी तथा आज्ञाकारी होना शिक्षक के अपेक्षित अनिवार्य चारित्रिक गुण हैं। शिक्षण-अधिगम एवं शिक्षण-कौशलों में औसत बुद्धिलब्धि तथा व्यावसायिक अभिरुचि एवं प्रशिक्षण में कमी को नजरंदाज किया जा सकता है लेकिन अन्य शैक्षिक सहगामी कार्यों के प्रति अवज्ञा कदापि स्वीकार्य नहीं है।
लॉकडाउन के समय स्वपोषित शैक्षिक संस्थाओं में नौकरी करने वाले युवा-प्रौढ़ संभवतया मन ही मन स्वयं को कोस रहे हैं। लॉकडाउन तथा सरकारी सख्ती के कारण घर से शैक्षिक कार्यों को सुचारु रूप से करते रहने के उपरांत भी उनके मन में वेतन और नौकरी के प्रति संशय अस्वाभाविक नहीं है। उनके मनोभाव होंगे कि ‘काश भाग्य साथ देता और हम भी सरकारी नौकरी करने वालों की कतार में शामिल होते तो जिंदगी मजे से कट जाती’। वैसे ‘दूसरे की थाली में घी सदैव अधिक नज़र आता है’, मनुष्य प्रकृति है कि वह स्वयं के दुख से दुखी होने की अपेक्षा दूसरे के सुख से जल्दी विचलित होता है।
अदृश्य कोरोना वाइरस (कोविद-19) नामक शत्रु से लड़ने के लिए डॉक्टर, पैराचिकित्सक, पुलिस-प्रशासन, आशा कार्यकर्ता, सफाईकर्मियों का ‘अभिनंदन सा अभिनंदन’ हो रहा है। उचित भी है लेकिन बिना सींग की गाय जैसे 8-8 घंटे की ड्यूटी देने वाले सरकारी शिक्षक/शिक्षिकाओं की कर्तव्यनिष्ठा की मीडिया द्वारा अनदेखी क्यों?
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राजस्थान के सीकर जिले एवं आस-पास के गाँवों में बेघर , लाचार प्रवासी मजदूरों और अन्य राज्यों से स्वगृह लौटे श्रमिकों के लिए सरकारी विद्यालयों में क्वारंटीन सेंटर बनाये गए हैं वहाँ पर क्वारंटीन किए गए लोगों की देखभाल और निगरानी के लिए सरकारी शिक्षक/शिक्षिकाओं की ड्यूटी लगायी गई हैं।
इस सत्य को जानने के बाद स्वपोषित शिक्षा संस्थानों के शिक्षकों का मानसिक अवसाद अवश्य कम हुआ होगा कि हमें अपना जीवन संकट में नहीं डालना पड़ा, वहीं दूसरी ओर समस्त शासकीय शिक्षक समुदाय के लिए गौरव की बात है कि वैश्विक संकट की इस घड़ी में उनका आचरण ‘नींव के पत्थर’ जैसा हैं। शिक्षकों की राष्ट्रभक्ति, कर्मठता और शालीनता भले ही दिखाई नहीं देती लेकिन संत कबीर के दोहे को अवश्य चरितार्थ करती है: गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय, बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय
(लेखिका प्रो. सरोज व्यास फेयरफील्ड प्रबंधन एवं तकनीकी संस्थान, कापसहेड़ा, नई दिल्ली में डायरेक्टर हैं। डॉ. व्यास संपादक, शिक्षिका, कवियत्री और लेखिका होने के साथ-साथ समाज सेविका के रूप में भी अपनी पहचान रखती है। ये इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के अध्ययन केंद्र की इंचार्ज भी हैं)
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