अब द्रोणाचार्य नहीं, चाणक्य की अभिलाषा !!
मन मस्तिष्क के अंदर विचारों का फूटता ज्वार अपने चरम पर है। अभिव्यक्ति पर अब यदि विराम लगाया तो अवसाद और मानसिक कुंठा से स्वयं को बचा पाना असंभव होगा।
नई दिल्ली: विगत 4 महीनों से प्रतिदिन आशा से निराशा के बादलों को उड़ाते-उड़ाते हारने लगी हूँ | अब मेरा मन नई-पुरानी फिल्मों के पात्रों में खुद को ढाल कर रोमांचित होने को तैयार नहीं है | माँ/सास से मिली पाक-विधा से व्यंजन बना-बनाकर परिवार और प्रियतम को लुभाने और खिलाने का उत्साह भी धीरे-धीरे ठंडा पड़ने लगा है | घर के कोनों से प्रतिदिन मिलने के कारण अब उनसे भी पहले सा प्यार नहीं रहा | मौन संवाद में परिधान और आभूषणों की कुटिल मुस्कान को महसूस कर रही हूँ, जो पूछ ही लेते हैं कि कब तक हम ऐसे ही बंद अलमारी में खुद से बातें करते रहेंगे ? अब तो ध्यान, योग और साधना सब कहने लगे हैं कि हमारे अलावा भी कुछ कर लिया करो | ऑनलाइन सेमिनार, वर्क शॉप, वेबिनार और व्यक्तित्व विकास कार्यक्रमों में भागीदारी के जुनून पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने यह कह कर कुठाराघात कर दिया कि "ई सर्टिफ़िकेट का एकेडेमिक महत्व नहीं अर्थात एकेडेमिक पर्फोमेंस इंडिकेटर (API) में इनकी उपयोगिता नहीं है | शेष बचे फ़ेस बुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर और व्हाट्सअप अकाउंट को कब तक ढोती और घसीटती रहूँ?
एक ओर जहाँ भारत के प्रधानमंत्री ने एक के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा सम्पूर्ण लॉकडाउन करके भारतीय जनमानस की रक्षार्थ कठोर पिता समकक्ष भूमिका निभाई वही दूसरी ओर भावुक माँ की तरह करोड़ों के आर्थिक पैकेज़ की घोषणा कर दी | कठोरता (लॉकडाउन) में दंड का भय समाहित था इसलिए पालन हुआ लेकिन भावुकता (घोषणाएँ) भयमुक्त और स्वतंत्र होने के कारण धरातल पर परिलक्षित होने की अपेक्षा हवा-हवाई जैसी प्रतीत हो रही है| दो महीने की गृहकैद के पश्चात धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य होने लगा है| सरकारी/गैर सरकारी संस्थाओं और संस्थानों में आवश्यकता और सुविधा अनुसार अधिकारियों-कर्मचारियों की उपस्थिति सुनिश्चित कर दी गई| कॉरपोरेट जगत में तकनीकी संसाधनों के माध्यम से कार्य पटरी पर लौटने लगा है और अर्थव्यवस्था का पहिया भी घूमने लगा है|
पाठक सोच रहे हैं आखिर समस्या क्या है? आज की तारीख में कोरोना महामारी से अधिक भयावह, आत्मघाती और पीड़ादायक वायरस है - शिक्षा का निजीकरण और राजनीतिकरण| कोरोना की आड़ में शिक्षा को हाशिए पर रख कर सरकार, शिक्षा विभाग, तथाकथित शिक्षाविद एवं शैक्षिक व्यवसायी ऑनलाइन शिक्षा के नाम पर खानापूर्ति करके भावी राष्ट्र निर्माताओं को पंगु बनाने का जघन्य अपराध कर रहे हैं| साथ ही गुरु की महिमा को खंडित करते हुए गोविंद से अग्रणी कहे जाने वाले शिक्षक के ज्ञानार्पण का पारितोषिक दैनिक श्रमकर्ता श्रमिक की न्यूनतम मजदूरी से भी कम करके धृष्टता की पराकाष्ठा को पार कर दिया है| अलौकिक जगत में विलीन कबीर की दिव्य आत्मा आज अपने ही दोहे की निरर्थकता पर अवश्य दुखी होगी| सबके लिए लॉकडाउन समाप्त हो गया, लेकिन शिक्षक और शिक्षार्थी अभी भी अनिश्चितकालीन बंद के दंश को झेल रहे हैं| कोरोना युग में भुखमरी के कगार पर खड़े सुदामा रूपी शिक्षक को दूर-दूर तक दरिद्रता से उबारने वाले बालसखा कृष्ण कही नज़र नहीं आ रहे हैं| विद्यार्थियों के आदर्श अध्यापक आज अपने ही शिक्षार्थियों की नजरों में दया और करुणा के पात्र बन गए हैं|
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राज्यों और केंद्र सरकार के आर्थिक पैकेजों, घोषणाओं तथा नीति-निर्देशों में राष्ट्र निर्माताओं की अनदेखी करने वाले राजनेताओं, अधिकारियों और शैक्षिक हितों के रक्षार्थ गठित संस्थाओं की अदूरदर्शिता, अकुशलता, नाकारा और भ्रष्ट चरित्र उजागर हो गया है | घनानंद के अत्याचारों से राज्य की प्रजा को भय मुक्त करने हेतु चाणक्य ने शिक्षा का सामाजीकरण किया और चद्रगुप्त के हाथों में सत्ता की बागडोर सौंप दी | आज वस्तु स्थिति यह है कि शिक्षा की बागडोर व्यवसायियों एवं तथाकथित शिक्षितों के हाथों में क्रंदन करने को विवश है | लालफ़ीताशाही के आगे सारे आदर्श दम तोड़ रहे हैं | राजनैतिक व्यवस्था ने भी अपना मुंह कतिपय विवशताओं के कारण मोड़ रखा है| वर्तमान में एक नहीं असंख्य घनानंदों की क्रूर फौज अभिभावकों, शिक्षकों तथा शिक्षार्थियों का आर्थिक और मानसिक शोषण निर्भीकता के साथ निर्लज्ज होकर कर रही हैं|
आज पुनः इतिहास के पन्नों को पलट कर देखने की आवश्यकता है| राज्याश्रय के कारण ही गुरु द्रोणाचार्य हठी, अधर्मी एवं सत्तालोलुप दुर्योधन का साथ देने के लिए विवश हुए थे, जबकि सामाजिक सहयोग से तथा दृढ़संकल्पित चाणक्य ने घनानंद ही नहीं अपितु समस्त नंदवंश का सर्वनाश किया था|
"यद्यपि मैं जानती हूँ कि मैं द्रोणाचर्य जैसी नहीं, किन्तु तुम अर्जुन बनो यह असंभव भी नहीं"| आज अपने ही विचारों से विमुख होकर घनानंदों के स्वामित्व से शिक्षा के राजनीतिकरण तथा निजीकरण को समाप्त करने हेतु चाणक्य का आह्वान करती हूँ|
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"मुझमें अब सामर्थ्य नहीं कि चंद्रगुप्त प्रशिक्षित करुं, फिर सोचा क्यों न सीधे अब चाणक्य का आह्वान करुं" !
(प्रो. (डॉ.) सरोज व्यास, लेखिका, इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय के अध्ययन केंद्र की समन्वयक एवं फेयरफील्ड प्रबंधन एवं तकनीकी संस्थान, नई दिल्ली में निदेशक पद पर कार्यरत हैं। इसके अतिरिक्त एसोशिएशन आफ ह्युमन राइट्स, नई दिल्ली के महिला प्रकोष्ठ की राष्ट्रीय अध्यक्षा तथा राष्ट्रीय स्लम फाउंडेशन की भविष्योदय पत्रिका के प्रधान संपादक के दायित्व का निर्वहन कर रही हैं।)