DN Exclusive: आखिर अपने ही देश में क्यों बेगानी हुई हिंदी, कौन कर रहा खिलवाड़?

डीएन ब्यूरो

हिंदी दिवस पर हम राजभाषा हिंदी का चाहे लाख गुणगान कर लें लेकिन सरकारी कार्यालयों व निजी संस्थानों में हिंदी की स्थिति किसी से छुपी हुई नहीं है। आखिर हिंदी से क्यों किया जा रहा है इतना खिलवाड़..पढ़ें, डाइनामाइट न्यूज़ की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट

सांकेतिक तस्वीर
सांकेतिक तस्वीर


नई दिल्लीः आज 14 सितंबर है, देश में यह दिन हिंदी के लिये समर्पित है। लेकिन हिंदी की वर्तमान में क्या स्थिति है, इससे हर कोई वाकिफ है। हम चाहे हिंदी को आगे बढ़ाने को लेकर लाख दावे कर लें लेकिन ग्लबोल बन चुकी इंग्लिश कहीं न कहीं हमारे देश की भाषा से प्रतिस्पर्धा करने में लगी हुई है।

अपने देश में आज भी हिंदी को वो महत्व नहीं मिल पा रहा है जिसकी हिंदी असल में हकदार है। आजादी के बाद 14 सितंबर 1949 को हमारी संविधान सभा ने हिंदी को राजभाषा का आधिकारिक दर्जा प्रदान किया था। तब से लेकर अब तक हिंदी काफी लंबी यात्रा कर चुकी है। लेकिन हिंदी से जो खिलवाड़ हो रहा है, वह बहुत काफी निराशाजनक है।

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हिंदी के लिए क्या कर रहे हैं हम 

1. हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए प्रदेश व केंद्र सरकार के अधीन जितने भी विभाग हैं, उन सभी कार्यालयों में हिंदी में कामकाज करने पर जोर दिया जा रहा है।

2. इसके लिए विभिन्न सरकारी व गैर- सरकारी संस्थानों में हिंदी पखवाड़े का भी आयोजन किया जाता है, लेकिन यह सिर्फ यहीं सीमित होकर रह गया है।

3. भारत में तीन चौथाई से भी ज्यादा लोग हिंदी बोलते और समझते हैं। बावजूद हम इंग्लिश के बढ़ते चलन को रोक नहीं पा रहे हैं।

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4. आज बेशक इंटरनेट व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर हिंदी में हम बहुत कुछ आसानी से ढूंढ पा रहे हैं, जिससे छात्रों को काफी लाभ मिल रहा है। लेकिन यह भी सच हैं कि इस प्लेटफॉर्म पर भी इंग्लिश हिंदी पर भारी पड़ रही है।

5. हिंदी को बढ़ावा देने के लिए सराकर न सिर्फ हिंदी पखवाड़े का आयोजन करती हैं बल्कि इस दौरान हिंदी में निबंध, वाद-विवाद, भाषण कविता आदि प्रतियोगिताएं आयोजित करती है। बावजूद यह सिर्फ कुछ दिनों के लिए सीमित है।

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अपने देश में ही बेगानी हुई हिंदी, ये हुई हालत

1. हम चाहे हिंदी को आगे बढ़ाने के लाख दावे कर लें लेकिन ग्लोबल भाषा बन चुकी इंग्लिश हिंदी को अपने देश में ही बेगानी कर रही है।

2. शिक्षा प्रणाली की बात करें तो आज न सिर्फ निजी संस्थान फिर चाहे वो स्कूल हो या फिर कॉलेज, हर तरफ इंग्लिश का बोलबाला है। 

3. यहीं हाल निजी दफ्तरों का भी है, जहां सारे काम काज इंग्लिश में होते है। 

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4. अब तो ऐसा चलन चल चुका है कि अगर बच्चों के अभिभावकों को इंग्लिश नहीं आती तो उनके बच्चों को उच्च निजी स्कूलों में दाखिला नहीं मिल रहा। वहीं अगर इन स्कूलों में बच्चे हिंदी बोलते हैं तो इस पर जुर्माना निर्धारित किया गया है।  

 हिंदी में शोध पत्र देने पर पीएचडी नहीं हुई अवार्ड  

बनारस में रहने वाले आईआईटी के पूर्व शोध छात्र सुनील सहस्त्रबुद्धे ने हिंदी में शोध पत्र जमा किया था लेकिन अफसोस की उनके शोधपत्र को स्वीकार नहीं किया गया। कारण विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें शोधपत्र अंग्रेजी में देने को कहा गया। शानदार शोध के बाद भी उन्हें पीएचडी अवार्ड नहीं हो सकी। यह कोई कहानी नहीं बल्कि हकीकत है।

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दरअसल 1972 में आईआईटी कानपुर में सुनील ने पीएचडी के लिए रजिस्ट्रेशन कराया था। उन्होंने 'औपनिवेशिक मनुष्य की अवधारणा' विषय पर शोध कर हिंदी में शोध पत्र लिखा था। इसका हश्र ये हुआ कि आज 68 साल के हो चुके है और सुनील को पीएचडी अभी तक अवार्ड नहीं हुई है। इसको लेकर उन्होंने आईआईटी प्रबंधन से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक गुहार लगाई। बावजूद 1981 में संस्थान में हिंदी में जमा हुआ उनका शोध पत्र धूल फांक रहा है।
 

 










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