राजराजेश्वरी चण्डिका देवी सिमली का इतिहास और बन्याथ यात्रा की कहानी

सुभाष रतूड़ी

श्री राज राजेश्वरी चंडिका देवी को शक्ति की प्रमुख देवी काली माता का रूप माना जाता है। चंडिका देवी को काली का सबसे उग्र रूप माना जाता हैं, लेकिन वे सबसे अधिक दयालु देवी भी हैं। पूरी श्रद्धा से चंडिका देवी की पूजा-अर्चना करने वालों की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। पढ़िये पूरी रिपोर्ट

चण्डिका देवी मंदिर सिमली, कर्णप्रयाग
चण्डिका देवी मंदिर सिमली, कर्णप्रयाग


नई दिल्ली: देवभूमि उत्तराखंड में चमोली जनपद के सिमली में पिंडर नदी के सुरम्य तट पर विराजमान श्री राजराजेश्वरी चंडिका देवी एक बार फिर अपने भक्तों और ध्याणियों को मूर्त रूप में साक्षात दर्शन देंगी। चंडिका देवी 7 सितंबर को गर्भगृह से बाहर भक्तों के बीच आएंगी और 11 सितंबर से बन्याथ यात्रा का शुभारंभ होगा। द्योरा या बन्याथ यात्रा में देवी चंडिका का पहला गन्तव्य और प्रथम त्रियामा विश्राम रतूड़ा गांव में होगा। रतूड़ा (चांदपुर) से चंण्डिका देवी का प्राचीन रिश्ता है। 

इस बार बन्याथ या द्योरा यात्रा में चंडिका देवी और क्षेत्र के तमाम कुल देवी देवताओं का भावपूर्ण और अद्भुत महामिलन भी 14 वर्षों बाद श्रद्धालुओं को देखने को मिलेगा। इसके साथ ही विभिन्न तरह के धार्मिक अनुष्ठानों और पौराणिक पंरपराओं के साथ आस्था, आध्यत्म और संस्कृति की त्रिवेणी का प्रवाह भी जगह-जगह नजर आयेगा।  

गोल गोविंद, गुणसाई, चंडिका देवी
सिमली का चंडिका देवी मंदिर या श्री राज राजेश्वरी चंडिका माता मंदिर शक्ति की प्रमुख देवी काली माता को समर्पित है। यहां के जिस पैतो मंदिर में इस समय चंडिका देवी विराजमान हैं, वह स्थान मूल रूप से गोविंद मठ है, जिसमें गोल गोविंद, गुणसाई, चंडिका देवी और राज राजेश्वरी देवी की मूर्तियाँ विराजमान हैं। यहां कुल 4 बड़े मंदिर हैं, जबकि कुछ छोटे मंदिर भी हैं।

गोल गोविंद, गुणसाई, चंडिका देवी मंदिर परिसर

सिमली की चण्डिका देवी का इतिहास, गोविंद मठ का महत्व, देवी के सिमली तक पहुंचने की यात्रा और 11 सितंबर से होने वाली द्योरा यात्रा से जुड़ी कई बातें जानने के लिये हमने 1994 में चंडिका देवी की बन्याथ यात्रा में बतौर पुजारी पूरे क्षेत्र के भ्रमण कर चुके पंडित महानंद गैरोला (92 वर्ष). श्री चंडिका देवी के अन्य पुजारियों, आयोजन समिति के पदाधिकारियों, बुजर्गों, कई विद्वतजनों और स्थानीय लोगों से बातचीत की और इस अद्भुत आयोजन से जुड़ी जानकारियां जुटाने की कोशिश की। 

बन्याथ यात्रा की तैयारियां
चंडिका देवी की बन्याथ यात्रा से जुड़े कार्यक्रमों और औपचारिक तैयारियों का शुभारंभ 16 अगस्त की सिंह सक्रांति से हो चुका है। संक्राति से यहां एरवावा, बरमावा और दासों का प्रशिक्षण और पूजन कार्यक्रम चल रहा है। प्रशिक्षण में तीन एरवावा (देवी के पश्वा) और ब्रह्म के साथ चलने वाले तीन ब्रह्मावा मिलाकर कुल सात लोग भी मुख्य रूप से शामिल हैं।

एरवावा, ब्रह्मावा, बालदेव, प्रधान और पधान 
एरवावा (देवी के पश्वा) और ब्रह्मावा सुंदरगांव, जाख, सेनू और सिमली गांव से हैं। जबकि बालदेव (बाल रूप में गोविंद भगवान के पश्वा) कंडवाल गांव से होता हैं। गोल गोविन्द भगवान के बाल रूप में यात्रा के साथ कंण्डवाल गांव के पंडित जी ले जाते हैं और वे सिमली गांव ओर से ऐरवाले रूप में इस यात्रा का प्रतिनिधित्व करते हैं। बाकी ऐरवाले नृत्य आदि करते हैं। लेकिन कंडवाल गांव के नहीं करते हैं। चार गांवों-  जाख, सुन्दर गांव, सिमली और सेनू के पधान (थोकदार) इस यात्रा में बड़ी भूमिका में रहते हैं। दो प्रधान (मालगुजार) इस यात्रा में जाते हैं, जो सेनू और जाख से हैं। इस बार जाख से सुनील रावत और सेनू से मुकेश नेगी इसमें प्रतिभाग करेंगे। 
यात्रा के दौरान दो गांवों सुन्दर गांव व सिमली के पधान चंडिका देवी मंदिर में रहते हैं।

बन्याथ यात्रा का प्रशिक्षण शिविर

ब्रह्मगुरू, पंडित और पुजारी
द्योरा यात्रा में गण्वैं यानी प्रमुख ब्रह्मगुरू के रूप में बैनोली गांव के विश्वंभर दत्त सती शामिल रहेंगे। गण्वैं यानी मुख्य पुजारी का गांव बैनोली (नारायण बगड़) है। जबकि यात्रा में पंडित जी कंडवाल गांव से होंगे। गोरोली गांव के गैरोला पंडित चण्डिका देवी के पारंपरिक पुजारी होते हैं। गैरोला पंडित सिमली चंडिका मंदिर के भी पुजारी हैं। आयोजन और मंदिर समिति के अध्यक्ष हेमंत टकोला और महासचिव देवेन्द्र सिंह रावत हैं। 

जानकारी के मुताबिक हाल के दिनों में चंडिका देवी मंदिर में दो भाई कृष्णा गैरोला व उनका छोटा भाई प्रदीप गैरोला पुजारी के रूप में सक्रिय भूमिका में हैं। इनके पिता हरि प्रसाद गैरोला भी पुजारी के रूप में देवी के चरणो में अपनी लंबी सेवाएं दे चुके हैं। लेकिन अब बुजुर्ग हो चुके हैं।  

लाटू देवता के आने पर ब्रह्म स्थापना
सिमली में चंडिका देवी परिसर में बन्याथ यात्रा का शुभारंभ सात सितंबर को होगा। इस दिन बसक्वाली गांव से गाजे-बाजों के साथ लाटू देवता यहां के लिये प्रस्थान करेंगे। सिमली आटागाड़ में लाटू देवता का भव्य स्वागत-पूजन किया जायेगा। इसके बाद लाटू देवता की अगुवाई में भगवती चंडिका देवी का ब्रह्म स्थापित होगा। 

चंडिका देवी का पहला पड़ाव रतूड़ा गांव
चंडिका देवी के ब्रह्म स्थापना के साथ अगले तीन दिन (8, 9 10 सितंबर) वैदिक मंत्रोच्चार के साथ ब्रह्मबंधन, दुर्गा सप्तशती पूजा, अभिषेक पूजादि कार्यक्रम होंगे और उसके बाद 11 सितंबर से विधि-विधान के साथ चंडिका देवी का क्षेत्र भ्रमण (बन्याथ यात्रा) होगा। चंडिका देवी सबसे पहले रतूड़ा गांव जाएंगी। रतूड़ा गांव (चांदपुर) से चंडिका देवी का घनिष्ट रिश्ता है। रतूड़ा गांव में देवी चंडिका की सहधर्मिणी देवियां नागिना या नैणी देवी, नंदा देवी, ज्वालपा देवी, सरस्वती देवी समेत कई अन्य देवी देवताओं का प्रवास भी है। 

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चंडिका देवी

चंडिका देवी का रतूड़ा से रिश्ता
चंडिका देवी बन्याथा यात्रा के आयोजन समिति के सचिव देवेन्द्र सिंह रावत बताते हैं कि रतूड़ा गांव में देवी की तीन शक्तियां निवास करती हैं। इस गांव के शीर्ष पर भगवान शिव विराजमान है। रतूड़ा से चंडिका देवी का शुरूआत से ही अटूट रिश्ता रहा है।

पिंडर नदी के किनारे मिली मूर्ति
1994-95 की द्योरा यात्रा में पुजारी के रूप में चंडिका देवी के साथ पूरे क्षेत्र का भ्रमण कर चुके पंडित अवकाश प्राप्त अध्यापक महानंद गैरोला के अलावा सचिव देवेन्द्र सिंह रावत बताते हैं कि कई साल पहले रतूड़ा गांव के पंडित ब्रह्म मुहूर्त में स्नान लिये अपने गांव की तलहटी नौली स्थित पिंडर नदी जाया करते थे। एक दिन रतूड़ा गांव के किसी पंडित को वहां नदी किनारे चंडिका देवी का फर्स (काष्ठ मूर्ति) मिली। जो बगौली की ओर से वहां बहकर आयी था। पंडित जी फर्स को लेकर अपने गांव रतूड़ा पहुंचे। रतूड़ा के तत्कालीन ग्रामीणों को जब इसकी जानकारी हुई कि वह फर्स चंडिका देवी का है तो गांव में पंचायत बुलाई गई। गांव वालों ने पंडित से देवी के फर्स को वापस वहीं पिंडर नदीं में विसर्जित करने को कहा।

जैसा कि हमारे देश में पौराणिक काल से ही देवी-देवताओं की प्रतिमाओं को समुद्र, नदीं, ताल-तालाबों के पवित्र जल में विसर्जित करने की प्राचीन पंरपरा रही है, उसी तरह रतूड़ा के पंडित ने भी चंडिका देवी के फर्स को पिंडर नदी में ससम्मान विसर्जित किया और घर लौट आये। आखिरकार देवी को रतूड़ा में स्थान नहीं मिल सका। पंडित द्वारा प्रवाहित की गई देवी की काष्ट प्रतिमा नदी में बहकर सिमली में पिंडर के तट पर गोल गोविंद, गुणसाई मंदिर पर किनारे लग गई। 

चंडिका देवी द्वार, सिमली

सपने में आई देवी
चंडिका देवी मंदिर समिति के महासचिव देवेंद्र रावत पौराणिक कथाओं के आधार पर कहते हैं कि जब भगवती चंडिका नदी में बहकर सिमली में पिंडर के तट पर पहुंची तो देवी सेनू, जाख, सुंदरगांव और सिमली के लोगों के सपने में आई। देवी ने उनको सिमली के मंदिर में स्थापित करने को कहा। तबसे मां चंडिका यहीं विराजमान है। 

अवतरित हुईं चंडिका देवी
पंडित महानंद गैरोला कहते हैं कि सिमली में देवी का फर्स के मिलने पर वहां मीटिंग बुलाई गई। मीटिंग में चण्डिका देवी अपतरित हुई और वहीं गोल गोविंद मंदिर परिसर में ही रहने को कहा। चण्डिका देवी ने कहा कि यहां बलि का भोग भी होगा। जबकि गोल गोविंद के रूप में भगवान विष्णु की साधारण पूजा होती है। बाद में वहां चण्डिका देवी के मंदिर बना लेकिन देवी का मुंह पश्चिम की तरफ किया गया। फिर कई सालों बाद देवी ने भ्रमण को कहा। 

पैता मंदिर का निर्माण 
उन्होंने बताया कि उस समय लोग खेती-बाड़ी में व्यस्त रहते थे और उनके पास देवी के साथ भ्रमण के लिये लंबा समय नहीं था। इसलिये लोगों ने देवी की बात मानी और भ्रमण के लिये पैता किया गया। पैता मंदिर का निर्माण हुआ, जिसमें देवी आज भी रह रही है। हर बार भ्रमण पर जाने से पहले देवी कुछ महीनों या सालों तक पैता मंदिर में रहती हैं। पैता मंदिर का मुंह भी पश्चिम दिशा की तरफ है। 

पैता का शाब्दिक अर्थ
पैता गढ़वाली बोली-भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ किसी पूर्व निर्धारित और सुनिश्चित यात्रा पर जाने से पहले यात्रा का सामान पेटी बांधकर किसी विशेष स्थान सुरक्षित रखना है।

रूतूड़ा भ्रमण की कहानी 
द्योरा या बन्याथ यात्रा में चण्डिका देवी सबसे पहले रतूड़ा गांव जाती है। चण्डिका देवी रतूड़ा गांव अपने क्रुद्ध और उग्र रूप में जाती है। लेकिन रतूड़ा वाले अपने गांव में चंडिका देवी का समर्पण भाव और तन-मन-धन से पूजन-अर्चन करते हैं। चंडिका देवी का वहां खूब आदर-सत्कार होता है। देवी चंडिका को यथा संभव दान और भेंट अर्पित की जाती है, जिसके बाद देवी शांत और खुश होकर सभी ग्रामीणों को अपना आशीर्वाद देती हैं और अगले दिन खुशी-खुशी रतूड़ा गांव से फिर वापसी का वचन देकर विदा लेती है।    

रतूड़ा गांव में देवी की पूजा 
पंडित श्री गैरोला कहते है कि जब रतूड़ा गांव वालों को जब पहली बार ये जानकारी हुई कि चंडिका देवी सबसे पहले उनके गांव आने वाली है तो उन्होंने बड़ी पंचायत बुलाई और चंडिका देवी के लिये समर्पित अलग स्थान भी दिया। इस स्थान पर आज भी रतूड़ा गांव में चंडिका देवी की पूजा होती है। 

चंडिका देवी के आगमन की कथा
92 वर्षीय वयोवृ्दध पंडित महानंद गैराला समेत क्षेत्र के कई लोगों का कहना है कि पिण्डारी ग्लेशियर में हिमनद के टूटने, अतिवृष्टि या ब्रजपात जैसी घटना के कारण किसी सुदर क्षेत्र से चण्डिका देवी पिंडर में बहकर रतूड़ा गांव के तलहटी में नौली में नदी के किनारे पहुंची और बाद से यहां से सिमली। कुछ लोगों का मानना है कि अतिवृष्टि जैसी प्राकृतिक घटना के कारण चंडिका देवी यहां कुमाऊं के गंगोलीहाट से बहकर संभवत: यहां पहुंची होगी। लेकिन कुछ लोग ये भी कहते हैं कि गंगोलीघाट क्षेत्र पिंडर नदी क्षेत्र से दूर और अलग है, इसलिये ऐसे लोग गंगोलीहाट से चंडिका देवी के आने को कम मान्यता देते हैं। हालांकि गंगोलीहाट में आज भी हाट कलिका मंदिर सिद्धपीठ के लिये प्रसिद्ध है। इस सिद्धपीठ की स्थापना आदिगुरू शंकराचार्य ने की थी।

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चंडिका देवी के दरबार में पंडित महानंद गैरोला

अस्पष्ट इतिहास
पुजारी पंडित श्री गैराला समेत कई लोग मानते हैं कि 18वीं सदी के आसपास यहां सिमली में चंडिका देवी की स्थापना हुई। कुछ लोग मंदिर की स्थापना का काल गढवाल में गोरखा आक्रमण और इससे संबंधित सुगौली की संधि (1816) के आसपास बताते हैं। 

भोजपत्रों के साथ दर्ज इतिहास भी गायब
श्री रावत बतातें है कि सिमली में चंडिका देवी के मंदिर की स्थापना के बारे भोजपत्रों में उनके पुरखों और मंदिर से जुड़े लोगों द्वारा काफी कुछ लिखा गया था। यह लेखन संस्कृत में था लेकिन इनका भलिभांति संग्रह और दस्तावेजीकरण नहीं हो सका। संग्रहण के अभाव में वे भोजपत्र अब गायब हो चुके हैं। इसलिये चंडिका देवी का स्पष्ट इतिहास बता पाना जटिल कार्य है।

काली का उग्र रूप
श्री राज राजेश्वरी चंडिका देवी को शक्ति की प्रमुख देवी काली माता का रूप माना जाता है। चंडिका देवी को काली का सबसे उग्र रूप माना जाता हैं, लेकिन वे सबसे अधिक दयालु देवी भी हैं। कहा जाता है कि इस मंदिर में कई तांत्रिक और साधु अक्सर आते रहते हैं। क्योंकि सिमली में चंण्डिका देवी के साथ भगवान विष्णु भी चतुर्भुज रूप में शंखचक्र धारण किये हुए हैं। 

पहले होती थी बलि लेकिन अब प्रतिबंध
श्री रावत बताते हैं कि चंडिका के इस मंदिर में पहले बकरे और भैंसों की बलि दी जाती थी। लेकिन 2012 में मंदिर समिति ने बड़ा फैसला लेते हुए यहां बलि को प्रतिबंधित कर दिया। मंदिर क्षेत्र में किसी भी तरह की बलि अब पूर्ण प्रतिबंधित हैं। अब यहां नारियल चढ़ाए जाते हैं। उनका कहना है कि इस बार भी बलि नहीं होगी और अन्य बाहरी गांवों के लोगों से भी बलि न करने का निवेदन किया जायेगा। वे कहते हैं कि इस बारे में देवी का जहां जैसा आदेश होगा, वैसा ही किया जायेगा।

सौ वर्षों से अधिक समय का सफर
पंडित श्री गैरोला बताते हैं कि उनकी जानकारी के अनुसार 1922-23 में भी चंडिका देवी की द्यौरा यात्रा आयोजित हुई थी। इसके 51-52 वर्षों बाद 1973-1974 में, इसके 20 साल बाद 1994-95 में, 15-16 साल बाद 2009-10 द्योरा यात्रा हुई और अब 14 वर्षों बाद फिर द्योरा यात्रा हो रही है। 1922-23 से पहले चंडिका देवी की द्योरा यात्रा कब हुई थी, इसकी कोई मिल सकी विश्वसनीय जानकारी नहीं। अंतिम प्राप्त जानकारी से अब तक यदि गणना की जाये तो यह साल चंडिका देवी की द्योरा यात्रा का शताब्दी वर्ष भी है। 

पंडित श्री गैरोला बताते हैं कि मुख्य पुजारी के रूप में 1973-1974 में पीताम्बर दत्त गैराला और 1994-95 में स्वयं उन्होंने 10 माह तक चंडिका देवी के साथ भ्रमण किया। हालांकि उनको 1922-23 में उनके चंडिका देवी की द्योरा यात्रा में शामिल उनके ही गांव के मुख्य पुजारी का नाम याद नहीं है।  

चंडिका देवी, सिमली

विष्णु जी के तीन अवतार 
पंडित श्री गैरोला बताते हैं कि मंदिर परिसर में विष्णु मंदिर भी स्थित है, जिसमें विष्णु जी के तीन अवतार बाराह अवतार, नृसिंह अवतार और बैकुंठ स्वरूप दिखाई देते है। भगवान विष्णु समेत सभी अवतारों का मुंह यहां पिंडर नदी और डिम्मर गांव की ओर पूर्व में है। जबकि केवल चंडिका देवी का मुंह पश्चिम में कर्णप्रयाग-नैनीताल सड़क मार्ग की ओर है।

मनोकामनाएं होती हैं पूरी
देश और दुनिया भर से हज़ारों भक्त यहां चंडिका देवी के मंदिर में माता का आशीर्वाद लेने आते हैं। ऐसा माना जाता है कि अगर कोई पूरी श्रद्धा से चंडिका देवी की पूजा-अर्चना, उपसना और प्रार्थना करता है तो उसकी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती है।

भ्रमण कार्यक्रम
चंडिका देवी की द्योरा यात्रा का पहला पड़ाव रतूड़ा होगा। इसके बाद रतूड़ा से बसक्वाली, सेनू, सुंदरगांव, कोली, पुडाणी और पुजारियों के गांव गैरोली जायेगी। उसके बाद गढ़वाल का भ्रमण शुरू होगा। देवी चमोली जनपद के अलावा, रुद्रप्रयाग, पौड़ी, उत्तरकाशी और टिहरी भी जाएंगी। भ्रमण कार्यक्रम 10 माह तक चलेगा।

 










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