कबीर व्यक्तिगत चुनाव के पैरोकार थे, इसलिए आज भी युवाओं के बीच लोकप्रिय
सोलहवीं सदी के संत कवि कबीर को व्यक्तिगत चुनाव का प्रतीक बताते हुए यहां ‘जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल’ में वक्ताओं ने इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि आज समाज से सत्ता और तकनीक ने व्यक्तिगत चुनाव का विकल्प और अधिकार छीन लिया है।पढ़िये पूरी खबर डाइनामाइट न्यूज़ पर
जयपुर: सोलहवीं सदी के संत कवि कबीर को व्यक्तिगत चुनाव का प्रतीक बताते हुए यहां ‘जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल’ में वक्ताओं ने इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि आज समाज से सत्ता और तकनीक ने व्यक्तिगत चुनाव का विकल्प और अधिकार छीन लिया है।
वरिष्ठ समालोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कहा कि आज मूढ़ता समाज का एक सामान्य व्यवहार बनती जा रही है और लोकतंत्र, अधिकार और पारदर्शिता के नाम पर समाज में सत्तातंत्र का शिकंजा अधिक से अधिक कसता जा रहा है। उन्होंने कहा कि यही वजह है कि कबीर युवा पीढ़ी के बीच अधिक लोकप्रिय हो रहे हैं, क्योंकि वह उस मूढ़ता से बाहर आने की चुनौती देते हैं।
उन्होंने कहा कि संत कबीर समाज को अपने गिरेबान में झांकने की चुनौती देते थे और इस चुनौती की काल एवं परिस्थितियों से परे जाकर हर समाज को जरूरत होती है, ताकि वह भटकाव से बच सके और इसीलिए निर्गुण कवि वर्तमान समाज में प्रासंगिक बने हुए हैं ।
संत कबीर के जीवन और कर्म पर रविवार को ‘जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल’ में सघन चर्चा की गई और वक्ताओं ने यह विचार व्यक्त किए ।
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'कबीर : द लाइफ एंड वर्क ऑफ द अर्ली मॉडर्न पोएट फिलॉसफर' विषय पर आयोजित सत्र में प्रसिद्ध लेखक और आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कहा कि संत कबीर 15वीं — 16वीं सदी में अपने समय द्वारा पेश अस्तित्वादी सवालों, चुनौतियों, और कुछ मूलभूत मानवीय सवालों पर मंथन कर रहे थे, जीवन के उद्देश्य को समझ रहे थे, संगठित धर्म के जाल और आध्यात्मिक क्षुधा के सवालों से जूझ रहे थे, और ये सवाल हमारे सामने आज भी हैं, इसलिए कबीर आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं ।
टीमवर्क्स आर्ट्स के प्रबंध निदेशक और कलाविद संजॉय के रॉय के साथ चर्चा के दौरान एक सवाल पर अग्रवाल ने कहा कि कबीर को अपने जीवनकाल में 52 बार कसौटी पर कसा गया और अगर वह आज के समय में भी होते, तो भी उन्हें उसी तरह परीक्षा देनी पड़ती, लेकिन जहां तक व्यक्तिगत चुनाव की बात है, तो अगर कबीर आज भी होंगे, तो वह व्यक्तिगत चुनाव के पक्ष में ही खड़े होंगे।
उन्होंने कबीर के दर्शन, उनकी आध्यात्मिक क्षुधा, धर्म को नकारने के उनके आग्रह और रूढ़िवादिता को चुनौती देने की उनकी जिद की पृष्ठभूमि में कहा कि कबीर व्यक्तिगत चुनाव के हिमायती थे। वह समाज को इस बारे में जागरूक करना चाहते थे कि धर्म एक जाल है और आध्यात्मिकता स्वयं की खोज है ।
अग्रवाल ने कहा कि कबीर का समाज को सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने किसी भी दैवीय सत्ता को स्वीकार करने से इंकार कर दिया, कुरान को खारिज कर दिया । इसके बजाय कबीर ने अनुभव सम्मत विवेकवाद को तरजीह दी।
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उन्होंने कहा कि अनंत दास द्वारा 1590 ईस्वी में पहली बार कबीर की जीवनी लिखी गई और उसे पढ़ने से समझ में आता है कि कबीर आक्रोश, बेचैनी, आध्यात्मिकता की खोज, अस्तित्वादी सवालों से जूझते हुए एक ऐसे सहृदय कवि हैं, जिनके भीतर व्यवस्था को लेकर विभिन्न प्रकार के बवंडर उठ रहे थे ।
उन्होंने कहा कि कबीर को आज के समय में किसी भी समझदार और संवेदनशील व्यक्ति की तरह उन्हीं सवालों से जूझना पड़ता, जो उनके अपने समय में थे।