सुप्रीम कोर्ट से जल्लीकट्टू को अनुमति मिलने के बाद पेटा का बड़ा बयान आया सामने, जानिये क्या कहा
पशुओं की भलाई के लिए काम करने वाले संगठन ‘पेटा इंडिया’ ने कहा है कि उच्चतम न्यायालय द्वारा ‘जल्लीकट्टू’ की वैधता बरकरार रखने के बाद वह सांडों की रक्षा के लिए कानूनी उपाय तलाश रहे हैं। पढ़िये डाइनामाइट न्यूज़ की पूरी रिपोर्ट
नयी दिल्ली: पशुओं की भलाई के लिए काम करने वाले संगठन ‘पेटा इंडिया’ ने कहा है कि उच्चतम न्यायालय द्वारा ‘जल्लीकट्टू’ की वैधता बरकरार रखने के बाद वह सांडों की रक्षा के लिए कानूनी उपाय तलाश रहे हैं।
उच्चतम न्यायालय ने बृहस्पतिवार को तमिलनाडु के उस कानून की वैधता बरकरार रखी, जिसके तहत सांडों से जुड़े खेल ‘जल्लीकट्टू’ को मंजूरी दी गई थी।
न्यायमूर्ति के.एम. जोसेफ की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से यह फैसला सुनाया। पीठ ने इसी के साथ बैलगाड़ी दौड़ की अनुमति देने वाले महाराष्ट्र के कानून की वैधता भी बरकरार रखी।
‘जल्लीकट्टू’ तमिलनाडु के ग्रामीण इलाकों में पोंगल के त्योहार के दौरान आयोजित किया जाने वाला एक पारंपरिक खेल है।
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‘पीपुल फॉर द एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स’ (पेटा) की अगुवाई में अन्य पशु अधिकार संगठनों ने इन प्रथाओं को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी थी।
डाइनामाइट न्यूज़ संवाददाता के मुताबिक फैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए पेटा ने सभी लोगों से बैल और भैंसों का शोषण करने वाले ऐसे ‘‘शर्मनाक कृत्यों’’ से दूर रहने का आह्वान किया।
संगठन ने कहा, ‘‘हम लंबे समय से पीड़ित इन पशुओं की रक्षा के लिए कानूनी उपाय तलाश रहे हैं।’’
मीडिया में आई विभिन्न खबरों का हवाला देते हुए पेटा इंडिया ने कहा कि तमिलनाडु द्वारा 2017 से ‘जल्लीकट्टू’ के आयोजन की अनुमति दिए जाने के बाद से कम से कम 33 सांड और 104 लोगों की मौत हो चुकी है जबकि 8,388 लोग घायल हुए हैं।
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अन्य पशु अधिकार कार्यकर्ताओं ने भी फैसले की आलोचना की है।
‘पीपुल फोर एनिमल’ की ट्रस्टी गौरी मोलेखी ने कहा कि जल्लीकट्टू, कम्बाला और इस तरह की अन्य प्रथाएं जानवरों को अनावश्यक पीड़ा देने के अलावा और कुछ नहीं हैं।
उन्होंने कहा, ‘‘हम आज के फैसले से बहुत निराश हैं। संस्कृति की आड़ में नैतिकता से समझौता नहीं किया जा सकता। समलैंगिक विवाह के मामले में वही अदालत संस्कृति की अलग व्याख्या करती है, लेकिन जल्लीकट्टू के आयोजनों में लोगों को मौत के घाट उतार दिया जाना एक अनमोल परंपरा की तरह लगता है जिसे वे संरक्षित करना चाहते हैं।’’